ॐ यह पूर्ण है, वह पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण बनता है l पूर्ण में से पूर्ण ले लेने पर पूर्ण ही शेष रहता है l ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः l अपने पिता भगवान नारायाण के पास जाकर पितामह ब्रह्मा ने कहा--''तुरीयातीत अवधूत का मार्ग क्या है और उनकी स्थिति कैसी होती है ? '' तब भगवान नारायण ने कहा-- ''अवधूत के मार्ग पर चलने वाले पुरूष दुर्लभ है, वे बहुत नहीं होते l अगर वैसा एक भी हो तो वह नित्य पवित्र, वैराग्य पूर्ण मूर्ति, ज्ञानाकार और वेद पुरूष होता है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है l ऐसा महापुरूष अपना चित्त मुझमें रखता है और मैं उसके अन्तर में स्थित रहता हूँ l वह आरम्भ में कुटीचक होता है, फिर वहूदक की श्रेणी में आता है l वहूदक से हंस बनते हैं और फिर परमहंस होते है l वे निज स्वरूपानुसन्धान से समस्त प्रपञ्च के रहस्य को जान जाते है और तब दण्ड, कमण्डलु, कटिसूत्र, कौपीन, आच्छादन करने वाले वस्त्र और विधिपूर्वक की जाने वाली क्रियाओ को जल में त्याग देते हैं l तब वे दिगम्बर ( वस्त्र रहित ) होकर विवर्ण और जीर्ण वल्कल ( छाल का वस्त्र और अजिन का भी त्यागकर सब प्रकार के विधि-निषेध रहित बनकर रहते हैं l वे क्षौर ( बाल बनवाना ), अभ्यंग, स्नान, ऊर्ध्व, पृंड्रादिक का भी त्याग कर देते हैं l वे लौकिक और वैदिक कर्मो का पुण्य और अपुण्य का ज्ञान और अज्ञान का भी त्याग कर देते हैं l उनके लिऐ सर्दी-गर्मी, सुख-दुख, मानापमान नहीं होता l वे तीनों वासनाओं सहित निन्दा-अनिन्दा, गर्व, मत्सर, दम्भ, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष, अमर्ष, असूया, आत्म संरक्षण की भावना को आग में झोंक देते हैं और अपनी देह को मुर्दा के सदृश्य समझ लेते है l वह प्रयत्न, नियम, लाभालाभ की भावना से शुन्य होते है l गौ की तरह जो कुछ मिल जाता है उसी से प्राण धारण करते है और सब प्रकार के लालच से रहित होते है l वे विद्या, पांडित्य को प्रपञ्च समझ कर धूल की तरह त्याग देते है, अपने स्वरूप को छिपाकर रखते है और इसलिये दिखलाने के लिये छोटे-बड़े की भावना को पूर्ववत्मानते रहते है l सर्वोत्कृष्ट और अद्वैत रूप को कल्पना करते है l वे मानते है कि मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नही है' ( अर्थात्मै ही पूर्ण ब्रह्मा हूँ ) वे देव और गुरूरूपी सम्पत्ति का आत्मा में उपसंहार करके न तो दुःख से दुखी होते है और न सुख से प्रसन्न होते है l वे राग से पृथक रहते है और शुभाशुभ किसी बात से कभी स्नेह नही रखते l उनकी सब इन्द्रियाँ उपराम को प्राप्त होती है l वे अपने पूर्व-जीवन के आश्रम, विद्या, धर्म, प्रभाव आदि का स्मरण नही करते और वर्णाश्रम के आचार का त्याग कर देते है l उनको दिन तथा रात समान होता है, इसलिये सोते नहीं ( कभी असावधान नही होते ) सदा विचरण करते है l उनका देहमात्र ही अवशिष्ट रहता है l जल और स्थल ही उनको कमण्डलु का काम देता है l वे सदैव उन्मत्तता से रहित होते है पर बाहर से बालक, उन्मत्त अथवा पिशाच के समान बनकर एकाकी रहते है l किसी से संभाषण नही करते वरन्सदैव स्वरूप के ध्यान में ही रहते है l वे निरालम्ब का अवलम्बन करके आत्मनिष्ठा के अतिरिक्त और सब का ध्यान भुला देते है l इस प्रकार का तुरीयातीत अवधूत के वेष वाला सदैव अद्वैत-निष्ठा में तत्पर रहता है और प्रणव के भाव में निमग्न होकर देहत्याग करता है l वही अवधूत है और वह कृतकृत्य हो जाता है ऐसा यह उपनिषद्है ll ॐतत्सत् ll1ll
ll तुरीयातीतोपनिषद्समाप्त ll
ll तुरीयातीतोपनिषद्समाप्त ll
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