श्री

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Saturday, June 19, 2010

अवधूतोपनिषद् mangaldhanram




शान्तिपाठ:- ब्रह्मा हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ ही रक्षा करो, हम दोनों का साथ ही पालन करो, हम दोनों साथ ही पराक्रम करें, हम दोनों का अध्ययन पराक्रमी हो, हम दोनों किसी का व्देष न करें l ॐ शांति, शांति, शांति, l
अब सांकृति ने भगवान दत्तात्रेय के पास जाकर पूछा --"हे भगवन् ! अवधूत कौन है ? उसकी स्थिति कैसी होती है ? उसका चिन्ह क्या होता है ? और उसका संसार कैसा होता है ?" यह सुनकर परम दयालु भगवान दत्तात्रेय ने कहा--- जो अक्षर अर्थात अविनाशी बना हो, सबसे श्रेष्ठ हो, संसार रूप बन्धन से रहित हो और 'तत्वमसि' आदि वाक्यों के लक्ष्यार्थ रूप हो, वह 'अवधूत' कहा जाता है ll1ll जो योगी आश्रम तथा वर्ण को उलांघ कर आत्मा में ही सदा रहता हो, वह वर्णाश्रम रहित योगी 'अवधूत' कहा जाता है ll2ll प्रियब्रहा जिसका मस्तक बन कर मोद दायां बाजू और प्रमोद बायाँ बाजू बन जाता है, उसकी स्थिति गाय के पैर के समान होती है ll3ll गोपाल का जैसा मस्तक पर होता है, मध्य में नहीं होता और नीचे भी नहीं होता, सर्व की प्रतिष्ठा रूप ब्रहा पुच्छ कहलाता है, इसलिए उसे पूछँ के आकार का करना चाहिए ll4ll इस प्रकार वे चार मार्ग द्वारा परमगति को पाते हैं ll5ll कितने ही कर्मो से, अथवा प्रजा से अथवा धन से अमरत्व प्राप्त नहीं होता, पर अकेले त्याग से अमरत्व पालिया गया है ll6ll अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करना, यही उनका संसार है l उनमें से कितने ही वस्त्र पहिनते हैं और कितने ही वस्त्र रहित भी होते हैं l उनके लिए न कुछ धर्म है और न कुछ अधर्म है, पवित्र नहीं है और अपवित्र भी नहीं है l ( इन्द्रियों को वश करने के रूप में ) सांग्रहणी दृष्टि से वे अन्तर में (आत्म-ध्यान रूप ) अश्मेध यज्ञ किया करते हैं l यही उनका महायज्ञ और महायोग है l इस प्रकार उनका समस्त चरित्र आश्चर्यकारक होता है l उनके ऐसे स्वेच्छाचार की निन्दा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यही उनका महाव्रत है l वे मूर्ख के समान ( पाप-पुण्य से ) लिप्त नहीं होते l जिस प्रकार सूर्य सर्व रसों को ग्रहण करता है और अग्नि सब को खाता है, वैसे ही योगी यदि विषयों को भोगता है, तो भी शुद्ध होने से पाप-पुण्य का भागी नहीं बनता ll7-9ll जिस प्रकार चारों तरफ से भरा हुआ होने पर भी अचल प्रतिष्ठा ( स्थिति ) वाले समुद्र में जल प्रवेश करता है वैसे ही योगी पुरूष में सर्व विषय-भोग प्रवेश करते हैं, तो भी वह ( अचल स्थिति युक्त रहता है और ) शांति प्राप्ति करता है l पर विषयों की इच्छा करने वाला सकाम व्यक्ति वैसी शांति नहीं पाता ll10ll इसलिये सत्य बात यह है कि किसी का लय नहीं है, किसी की उत्पत्ति नहीं है, कोई बँधा हुआ नहीं है, कोई साधक नहीं है, कोई मुमुक्ष नहीं है और कोई मुक्त भी नहीं है ll11ll ''इस लोक और परलोक के कृत्यों की सिद्धि के लिए, उसी प्रकार मुक्ति की सिद्धि के लिए पहले मुझे बहुत कुछ करना आवश्यक था, पर अब यह सब हो चुका है'' इस प्रकार प्रत्येक योग का मुख्य अनुसंधान करता हुआ वह अवधूत इसी में कृतकृत्य होता है और सदैव तृप्त रहता है ll12-13ll ( फिर वह चिन्तन करता है कि ) अज्ञानीजन पुत्र आदि की इच्छा से अत्यन्त दुःखी होकरसंसार में फँसते रहें, पर मैं तो परमानन्द से पूर्ण हूँ, तो फिर किस इच्छा से संसार में फँसू ? ll14ll जिनको परलोक जाने की इच्छा हो चाहे उस इच्छा से भले कर्म किया करें, पर मैं तो सर्व लोकों का आत्मा हूँ---सर्व लोकमय बना हूँ, तो मैं कोई भी कर्म क्यों करूँ ? ll15ll जिनको इस बात का अधिकार हो वे भले ही प्रवचन किया करें और चाहे वेदों को पढाते रहें, पर मुझे तो इसका अधिकार ही नहीं है, क्योंकि मैं क्रियारहित हूँ l मैं निद्रा की भिक्षा की, स्नान अथवा शौच की इच्छा नहीं करता lजो दृष्टा हों वे भले ही अन्य की कल्पना करें, पर मुझे अन्य की कल्पना करने से क्या फायदा ? अन्य लोग गुञ्जा ( चिरयिठी ) की लालिमा के कारण उसमें भले ही अग्नि का आरोप करें, पर इससे गृञ्जा का ढेर जल नहीं जाता, फिर मेरे भीतर तो संसार के धर्मो का आरोप ही नहीं है, इसलिए मैं किसी का भी भजन नहीं करता ll16-17ll जिन्होने तत्व को जाना न हो वे भले ही श्रवण करें, पर मैं तो तत्व को जानता हूँ, तो फिर किस लिए श्रवण करूँ ? जो संशय में पड़े हों, वे भले ही मनन करें, मुझे तो संशय है ही नही इससे मैं मनन नहीं करता ll18ll जिसकी विपयसि ( विपरीत मान्यता ) हुई हो, वह भले ही निदिध्यासन करे, पर जहाँ विपयसि होता ही नहीं, वहाँ ध्यान की क्या आवश्यकता है ? देह को आत्मा मान लेने का विपर्यास मुझे कभी नहीं होता (इसलिए मुझे निदिध्यान की क्या आवश्यकता है ? ) ll19ll ''मैं मनुष्य हूँ'' आदि, इस प्रकार का व्यवहार भी विना विपर्यास के नहीं होता और यह विपर्यास भी दीर्घ काल से अभ्यास में पड़ी वासना के कारण ही होता है ll 20 ll प्रारब्ध कर्मो का नाश होने पर ही, यह व्यवहार बन्द होता है, पर प्रारब्ध कर्म नाश न हुआ हो तब तक हजार ध्यान करने से भी यह व्यवहार शान्त नही होता ll 21 ll व्यवहार कम करने की इच्छा हो तो तू भले ही ध्यान कर, पर मेरी दृष्टि में तो कर्मो का व्यवहार है ही नहीं, तो मैं किस लिए ध्यान करूँ ? ll 22 ll मुझे विक्षेप होता ही नहीं, इससे मुझे समाधि करने की भी आवश्यकता नही हैं l यह तो मन जो विकार वाला होता है तभी विक्षेप होता है और तभी समाधि की आवश्यकता होती है l मैं तो नित्य अनुभव रूप हूँ, समाधि में मुझे और क्या भिन्न अनुभव हो सकता है ? ll23ll मै ने तो जो करना है वह किया है और जो प्राप्त करना है वह सदैव प्राप्त किया है, इसीलिए लौकिक, शास्त्रीय अथवा अन्य प्रकार का व्यवहार मुझे क्यों करना चाहिए ? फिर मैं कर्ता नहीं हूँ, मुझे किसी बात की लिप्तता नहीं है, केवल प्रारब्ध कर्म के अनुसरण से भले ही प्रवृत्ति होती रहे ll 24-25 ll अथवा मैं कृतकृत्य हूँ, तो भी लोगों पर अनुग्रह करने की इच्छा से यदि शास्त्रानुसार चलता हूँ, तो इसमें मेरी क्या हानि है ? ll 26 ll देवपूजा, स्नान, शौच, भिक्षा आदि में भले ही शरीर प्रवृत्ति करे, वाणी ॐकार का जप भले ही जपे, इसी प्रकार उपनिषदों का पाठ भले ही करे, बुद्धि विष्णु का ध्यान भले ही करे अथवा भले ही ब्रहाlनन्द में लीन हो, मीं तो केवल साक्षी हूँ, अर्थात् इनमें से किसी काम को करता नहीं और कराता भी नहींं ll 27 ll ''मैं कृतकृत्य होने से तृप्त हूँ, और जो प्राप्त करना है उसे मैंने प्राप्त कर लिया है, इससे भी तृप्त हूँ, इस प्रकार अपने मन में निरन्तर मानता रहता हूँ ll 28 ll फिर मैं धन्य हूँ-धन्य हूँ, मुझे धन्य है-धन्य है, क्योंकि अपने आत्मा को अनायास ही जानता हूँ l मुझे धन्य है क्योंकि मुझे ब्रहानन्द स्पष्ट प्रकाशित करता है l मुझे धन्य है---धन्य है, क्योंकि संसार का दुःख अब मैं नहीं देखता l मैं धन्य हूँ—धन्य हूँ, क्योंकि मेरा अज्ञान कभी का नष्ट हो चुका है, मुझे धन्य है—धन्य है, क्योंकि मुझे कुछ भी करना नहीं है l मैं धन्य हूँ-धन्य हूँ कि जो कुछ प्राप्त करना है वह मैने यहीं प्राप्त कर लिया है l मैं धन्य हूँ—मैं धन्य हूँ, मेरी तृप्ति की लोक में कोई उपमा है ? ( अर्थात्कोई नहीं है ) l मैं धन्य हूँ-धन्य हूँ, मैं बारम्बार धन्य हूँ-धन्य हूँ अहो, पुण्य ! अहो पुण्य! इस पुण्य की सम्पत्ति दृढ़ फली है—फली हैl अहो हम! अहो हम! (धन्य है) अहो ज्ञान! अहो ज्ञान! अहो सुख! अहो शास्त्र! अहो शास्त्र! अहो गुरू! अहो गुरू! (वास्तव में धन्यवाद के पात्र हैं) ll 30-35 ll इस प्रकार जो मनुष्य इस उपनिषद को पढ़ता है, वह कृतकृत्य होता है, मदिरा पान किया हो तो भी वह पवित्र होता है सुवर्ण चुराया हो तो भी पवित्र होता है, ब्रह्माहत्या की हो तो भी पवित्र होता है, कार्य अकार्य किया हो तो भी पवित्र होता है l ऐसा ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात्स्वेच्छानुसार ( आत्मानुकूल ) में प्रवृत्त हो सकता है l ॐसत्यम् l इस प्रकार यह उपनिषद्समाप्त होता है l ll 36 ll

ll अवधूत उपनिषद्समाप्त ll

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