श्री

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Monday, June 21, 2010

आत्मपूजोपनिषद् mangaldhanram


उस आत्मा का निरन्तर चिन्तन ही उसका ध्यान है l सभी कर्मो का त्याग ही आवाहन है l निश्चल ( स्थिर ) ज्ञान ही आसन है l उनके प्रति सदा उन्मन रहना ही पाद्य है l उसकी ओर मन लगाये रखना ही अर्ध्व है l सदा आत्माराम की दीप्ति ही आचमनीय है l वर प्राप्ति ही स्नान है l सर्वात्मक रूप दृश्य का विलय ( शून्य लय समाधि ) ही गंध है l अन्तः ज्ञान चक्षु ही अक्षत है l चिद् का प्रकाश ही पुष्प है l सूर्यात्मक ही दीप है l परिपूर्ण जो चन्द्र उसके अमृतरस का एकीकरण ही नैवेद्य है l निश्चलता ( स्थिरता ) प्रदक्षिणा है l ''सोsहं'' यह भाव ही नमस्कार है l परमेश्वर की स्तुति ही मौन है l सदा सन्तुष्ट रहना ही विसर्जन है l इस प्रकार परिपूर्ण राजयोगी का सर्वात्मक रूप जो पूजा उसका उपचार ( सामग्री ) सर्वात्मकता ही आत्मा का आधार है l सर्व आधिव्याधिरहित निरामय ब्रहा से मैं परिपूर्ण हूँ-यही भावना मोक्ष के इच्छुकों की मोक्ष की सिद्धि है l अर्थात् जैसे देवताओं की पूजा के लिए ध्यान, आवाहन, गन्ध, नैवेद्य आदि चाहिये ऐसे ही आत्म-पूजा के लिए उपयुँक्त सामग्री चाहिए अर्थात वैसे करने से ही आत्मा की पूजा होती है l
ll आत्मपूजोपनिषद् समाप्त ll

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