श्री

श्री

Sunday, August 15, 2010

mangaldhanram

सौदे के लिये बटसरे बाजार हुये हम l
हाथ उसके बिके जिसके खरीदार हुये हम ll

दुनियाको एक सराय समझते रहे सदा,
एक रात रहकर सुबहको बिस्तर उठा चले ll

Wednesday, August 11, 2010

सोये हुये को जगा सकते हैं, काछे हुये को नहीं l


· आदतकी दवा मौत है l अभ्याससे आदतका निर्माण होता है आदत धर्म का रूप लेती है l धर्मका नाश नहीं होता l जो आदत धर्मका रूप नहीं लेती उसका नाश शरीरके साथ ही होता है उससे पहले नहीं

· तेरी जिन्दगीमें केवल चार बातें हैं और यह भी जरूरी नही कि तू चारोंको याद कर l यदि तुझे खुशनसीब होकर जीना है तो दो बातें---यानी भलाई, जो तूने किसीके साथकी हो और बुराई जो किसी दूसरेने तेरे साथ की हो---दोनोंको हमेशा-हमेशाके लिए भूल जा और दो बातें-पहली मालिक और दूसरी मौतको सर्वदा याद रख l
· जो बहुत सिद्धान्तकी बात करता है, जो बहुतसे धर्म-शास्त्र पढ़ता है, जो बहुत कुछ जानता है, पर उन सबपर अमल नहीं करता, वह, उस निर्धनके समान है जो दूसरोंका धन गिन कर स्वयं धनी होनेका अहंकार करता है l
· धर्म-द्रोहीका मन मुर्दा, पापीका मन रोगी, लोभी व स्वार्थीका मन आलसी तथा भजन साधनमें तत्पर व्यक्तिका मन स्वस्थ होता है l हे मानव ! यदि तू अपने स्वास्थ्यको जीवन भर कायम रखना चाहता है तो अधर्म, द्रोह, पाप एवं लोभसे अपने आपको मुक्त कर ले l यही संसार तुझे प्रकाशयुक्त लगेगा और तू इस प्रकाशसे अपना ही नहीं, अपने सम्पूर्ण समाजके स्वास्थ्यकी रछा कर सकता है l

Wednesday, July 21, 2010

mangaldhanram


परम पूज्य अघोरेश्वर :-

इस गुरू-पूर्णिमा पर हम स्मरण दिलाते हैं कि गुरू कोई हाड़-मांस नहीं है। गुरू तो एक विद्या है। वह जाति, धर्म, वर्ग की परिधि से परे है। वह किसी भी धर्म या जाति का हो सकता है। वही गुरू तत्व को प्राप्त करा सकता है। किसी भी गुरू-पीठ पर हम गुरू-मन्त्र का आवाहन कर सकते हैं।
गुरू विद्या है। विद्या बहुत थोड़ी है, अविद्या व्यापक होती है। अविद्या अखिल विश्व में व्याप्त है। यह प्रपंच है। अविद्या से ही परेनी है, दुख है, शोक है। यह मनुष्य के दुख का कारण है। जो कुछ भी देखते हैं, वह प्रायः अविद्या में है। जितना कुछ बरतते हैं, वह अविद्या में है। आप जो सही सुलझे ढ़ंग से अध्ययन करते हैं, चिन्तन-मनन करते हैं, उसी को इस अवसर पर स्मरण करते हैं। यह विद्या हम सब में है। वह क्या है उसी को समझना है और स्मरण करना है। ऐसा करने से हम सीख सकते हैं कि हमें किस तरह जीना है। बहुत से प्राणी जीना नहीं जानते। चलना सीख सकें, उठना-बैठना सीख सकें, इसी निमित्त आज का दिन है। यह प्रशिक्षण अपने आप में निहित है। चिन्तन-मनन के माध्यम से इसे जाग्रत करना है। किसी उच्छृंखल व्यक्ति को अनु्सन में रखने से उसे दुख होगा। अनुशासन भी एक तपस्या है। यह प्राणियों के लिए कल्याणप्रद है। कोई भी बुरा कर्म कर बैठता है। इससे ग्लानि होती है, निराशा होती है। उसकी आत्मा मर जाती है। वह चलती-फिरती लाश की तरह हो जाता है।
एक नवयुवक एक साधु के पास गया और उनसे नौकरी दिला देने की याचना की। साधु ने आच्चीर्वाद देते हुए कहा कि जाओ, किसी सज्जन से मिलो। जहॉं कहीं भी वह नवयुवक गया और देखा, उसे किसी की मुखाकृति गधा की और किसी की सूअर की दीख पड़ी। वह उस साधु के पास लौट कर गया और उन्हें इस स्थिति से अवगत कराया। साधु जी ने उसकी कान पर एक लकड़ी का टुकड़ा रखा और पुनः उसे किसी सज्जन पुरूष की खोज में भेंज दिया। उस युवक को एक मोची मिला जो देखने में मनुष्य लगा। उसने उसी से नौकरी के लिए विनती की। उस मोची ने स्नेहमय आश्च्वासन दिया। मोची ने एक जोड़ा सुन्दर जूता बना कर राजा को पेश किया। राजा खुश हुआ। मोची ने राजा से पारितोषिक में उस युवक को नौकरी दे देने का अनुरोध किया और उस बेकार युवक को नौकरी मिल गयी।
यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति से याचना करेंगे जो मनुष्य होगा तो वह अधिकार और धन के अभाव में भी बहुत प्रेम से सान्त्वना देगा और ऐसा मार्ग-निर्देशन देगा कि उसका अनुशरण कर आप स्वस्थ मार्ग पायेंगे। अपने देश के विभिन्न जातियों में यदि आप भिन्नता देखेंगे तो यह रूचिकर नहीं होगा। जैसे चावल, दाल और गेहॅूं का अलग-अलग सेवन करेंगे तो वह सुस्वादु नहीं होगा किन्तु यदि उन्हें मिलाकर सेवन करेंगे तो वह स्वादिष्ट होगा। इसी प्रकार यदि आप राष्ट्र की अनेकानेक जातियों को अपने साथ अलगाव का व्यवहार करते रहेंगे, इसका कुप्रभाव अवश्यम्भावी है। अतः अपने राष्ट्रीय जीवन में हमें सभी को अपने साथ लेकर चलना होगा। ऐसा राष्ट्रीय जीवन श्रेयस्कर होगा।
हम इस देश में किस तरह रहें, किस प्रकार अनुशासित रहें, इसका ज्ञान भी आवश्यक है। हमारे जीवन मं् जाति और वर्ग का भेदभाव न हो, इसी मनोभावना और व्यवहार से हम सम्यक् जीवन जी सकेंगे। इस पर्व का यही चिन्तन है, यही महत्व है। अपनी आत्मा को पद्दलित न होने दें। जिसकी आत्मा पद्दलित हो जाती है वह सब कुछ रहते हुए भी, अतृप्ति एवं असंतोष का शिकार हो जाता है। परिवर्तन बहुत ही आवश्यक है। मनुष्य हर दिन हर क्षण नई वस्तु चाहता है। हरेक को नये विचार, नई दिशा की आवश्यकता है। रूढ़िवादिता दुखद है। युग के अनुसार अपने में परिवर्तन लाना चाहिए। वह नया मार्ग प्रशस्त करेगा। मेरी बातों में आपकी रूचि के जो अनुकूल हों, उन्हें ही आप अंगीकार करेंगे।

Wednesday, June 23, 2010

दया पाप है mangaldhanram


परम पूज्य अघोरेश्वर :-
· बिना सोचे-बिचारे कोई निर्ण्य लेना मनुष्यकी अपनी कमजोरी है l

दया एक बड़ा पाप है l न दया करनी चाहिए और न दया की प्राप्ति की आशा करनी चाहिए l दया से प्रयत्न दूर हो जाता है और प्रयत्न ही सत्य का स्वरूप है l ईश्वर के यहाँ न्याय होता और हमारे यहाँ की ही तरह वहाँ भी एक न्यायालय है l किसी पर दया नहीं की जाती l न्याय का मतलब दया नहीं है l किसी व्यक्ति के प्रति दया करना, न्याय से डिगना ईश्वर के प्रति बड़ा अपराध करना है l

सत्य ही सर्वश्रेष्ठ है mangaldhanram

जीवन में गीता-पुराण का बड़ा महत्व है l देश-काल और समय के मुताबिक अच्छे गुणों का वीचार इनमें प्रतिपादित किया गया है l लोग कहते है कि संसार में दुख है l गीता-रामायण सुनने वाले मंगल की प्राप्ति करते हैं l ईश्वर के नजदीक रहते है l यदि आप ध्यान से देखें तो कितने रामायण पाठी दुःखी है यह बात मेरी समझ में नहीं आती l मेरे विचार में यह आता है कि संसार में सबसे बड़ा सत्य है l हम सबको सत्य के ही नजदीक जाने का प्रयत्न करना चाहिए l सत्य के नजदीक रहने वाला व्यक्ति सुखी होगा l यदि गीता-रामायण सत्य हैऔर हमको सत्य के मार्ग की ओर ले जाते है तो दुख का कोई प्रश्न ही नहीं उठता l
आत्मा की सच्चाई से बरक्कत होती है l बरक्कत के लिए साफ नियति की आवश्यकता होती है l साफ नियति ही जीवन में संतुष्टि देती है l अतः सर्वदा सत्य की ओर अग्रसर होकर कुशल बनें l

Monday, June 21, 2010

आत्मपूजोपनिषद् mangaldhanram


उस आत्मा का निरन्तर चिन्तन ही उसका ध्यान है l सभी कर्मो का त्याग ही आवाहन है l निश्चल ( स्थिर ) ज्ञान ही आसन है l उनके प्रति सदा उन्मन रहना ही पाद्य है l उसकी ओर मन लगाये रखना ही अर्ध्व है l सदा आत्माराम की दीप्ति ही आचमनीय है l वर प्राप्ति ही स्नान है l सर्वात्मक रूप दृश्य का विलय ( शून्य लय समाधि ) ही गंध है l अन्तः ज्ञान चक्षु ही अक्षत है l चिद् का प्रकाश ही पुष्प है l सूर्यात्मक ही दीप है l परिपूर्ण जो चन्द्र उसके अमृतरस का एकीकरण ही नैवेद्य है l निश्चलता ( स्थिरता ) प्रदक्षिणा है l ''सोsहं'' यह भाव ही नमस्कार है l परमेश्वर की स्तुति ही मौन है l सदा सन्तुष्ट रहना ही विसर्जन है l इस प्रकार परिपूर्ण राजयोगी का सर्वात्मक रूप जो पूजा उसका उपचार ( सामग्री ) सर्वात्मकता ही आत्मा का आधार है l सर्व आधिव्याधिरहित निरामय ब्रहा से मैं परिपूर्ण हूँ-यही भावना मोक्ष के इच्छुकों की मोक्ष की सिद्धि है l अर्थात् जैसे देवताओं की पूजा के लिए ध्यान, आवाहन, गन्ध, नैवेद्य आदि चाहिये ऐसे ही आत्म-पूजा के लिए उपयुँक्त सामग्री चाहिए अर्थात वैसे करने से ही आत्मा की पूजा होती है l
ll आत्मपूजोपनिषद् समाप्त ll

Saturday, June 19, 2010

भिक्षुकोपनिषद् mangaldhanram


शांति पाठ-- यह पूर्ण है, वह पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण बनता है l पूर्ण में से पूर्ण ले लेने पर पूर्ण ही शेष रहता है l; ॐ शांति, शांति, शांति, l
मोक्ष के अभिलाषी भिक्षुक चार श्रेणियों के होते हैं-- कुटीक, बहूदक, हंस, परमहंस ll1ll कुटीचक सन्यासी गौतम, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ आदि की तरह आठ ग्रास का भोजन करके योगमार्ग द्वारा मोक्ष की खोज करते हैं ll2ll बहूदक त्रिदण्ड, कमण्डल, शिखा-सुत्र, काषाय वस्त्र धारण करके मधुमांस का त्याग करते हुए ब्रहार्षि के घर से आठ ग्रास भोजन करते हैं और योगमार्ग द्वारा मोक्ष की खोज करते हैं ll3ll हंस नामधारी सन्यासी ग्राम में एक रात्रि, नगर में पाँच रात्रि, क्षेत्र में सात रात्रि से अधिक निवास नहीं करते l ये गोमूत्र और गोबर का आहार करने वाले, सदैव चान्द्रायण व्रत करने वाले योगमार्ग से मोक्ष की खोज करते हैं ll4ll परमहंस नाम के सन्यासी संवर्तक, अरूणि, श्वेतकेतु, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव, वामदेव, हारीतक प्रभृति की भाँति आठ ग्रास भोजन करके योगमार्ग से मोक्ष की खोज करते हैं l ये परमहंस वृक्षमूल, शून्यगृह, श्मशान आदि में सवस्त्र अथवा दिगम्बर वेष में रहते हैं l उनको धर्म-अधर्म, लाभ-हानि, शुद्ध-अशुद्ध से कोई मतलब नहीं रहता, द्वैतभाव नहीं रखते, मिट्टी और सोने को एक समान समझते हैं, सब वर्णो के यहाँ भिक्षा करते हैं और सबको आत्मवत् देखते हैं l वे नंगे, निर्द्वन्द्, परिग्रह रहित, शुक्ल ध्यान परायण, आत्मनिष्ठ, प्राण धारण करने के निमित्त नियत समय पर भिक्षा करने वाले, सुनसान स्थान, मन्दिर, घर, झोंपड़ी, बाँवी, वृक्षमूल, कुलालशाला, यज्ञशाला, नदी का किनारा, पहाड़ की गुफा, टीला, गड्ढा, झरना आदि किसी भी स्थान में रहकर, ब्रहामार्ग में सम्यक् प्रकार से सम्पन्न होकर शुद्ध मन से परमहंस के आचारों का पालन करते हुए सन्यास द्वारा देहत्याग करते हैं, वे ही परमहंस है l यह उपनिषद् है ll5ll


ll भिक्षकोपनिषद् समाप्त ll